Saturday, January 17, 2009

जो भी मिल जाता है

इससे पहले भी अख्तर नज़्मी की एक नज़्म आपको पढ़वा चुका हूँ आज पेश है उनकी एक और ग़ज़ल .....

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ।
या किसी और तलबगार को देता हूँ।

धूप को दे देता हूँ तन अपना झुलसने के लिये
और साया किसी दीवार को दे देता हूँ।

जो दुआ अपने लिये मांगनी होती है मुझे
वो दुआ भी किसी ग़मख़ार को दे देता हूँ।

मुतमइन अब भी अगर कोई नहीं है, न सही
हक़ तो मैं पहले ही हक़दार को दे देता हूँ।

जब भी लिखता हूँ मैं अफ़साना यही होता है
अपना सब कुछ किसी किरदार को दे देता हूँ।

ख़ुद को कर देता हूँ कागज़ के हवाले अक्सर
अपना चेहरा कभी अख़बार को देता हूँ ।

मेरी दुकान की चीजें नहीं बिकती नज़्मी
इतनी तफ़सील ख़रीदार को दे देता हूँ।

Sunday, December 21, 2008

तुम आज हंसते हो हंस लो

तुम आज हंसते हो हंस लो

तुम आज हंसते हो हंस लो मुझ पर ये आज़माइश ना बार-बार होगी

मैं जानता हूं मुझे ख़बर है कि कल फ़ज़ा ख़ुशगवार होगी

रहे मुहब्बत में जि़न्दगी भर रहेगी ये कशमकश बराबर,

ना तुमको क़ुरबत में जीत होगी ना मुझको फुर्कत में हार होगी

हज़ार उल्फ़त सताए लेकिन मेरे इरादों से है ये मुमकिन,

अगर शराफ़त को तुमने छेड़ा तो जि़न्दगी तुम पे वार होगी

ख़्वाजा मीर दर्द

1721 - 1785

Sunday, December 7, 2008

जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

अदम गोंडवी कहते हैं,

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

Wednesday, December 3, 2008

अब डरने लगा हूँ

पहले डरता नही था पर अब डरने लगा हूँ

तिल तिल कर मरने लगा हूँ ,

रोज़ बस से आफिस जाता हूँ ,

इसलिए आस पास की चीज़ों पर ध्यान लगता हूँ

सीट के नीचे किसी बम की शंका से मन ग्रसित रहता है

कभी कोई लावारिस बैग भ्रमित करता है ।

ख़ुद से ज़्यादा परिवार की फ़िक्र करता

इसलिए हर बात मे उनका ज़िक्र करता हूँ

रोज़ अपने चैनल के लिए ख़बर करता हूँ

और किसी रोज़ ख़ुद ख़बर बनने से डरता

मैं भी एक आम हिन्दुस्तानी की तरहां रहता हूँ

इसलिए रोज़ तिल तिल कर मरता हूँ

हालात यही रहे तो किसी रोज़ मैं भी

किसी सर फिरे की गोली या बम का शिकार बन जाऊँगा

कुछ और न सही पर बूढे अम्मी अब्बू के आंसुओं का सामान बन जाऊँगा

। इस तरह एक नही कई जिनदगियाँ तबाह हो जाएँगी

बहोत न सही पर थोडी ही

दहशतगर्दों की आरजुओं की गवाह हो जाएँगी

। इसीलिए मैं अब डरने लगा हूँ

हर रोज़ तिल तिल कर मरने लगा हूँ ,

तिल तिल कर मरने लगा हूँ ।

Thursday, October 9, 2008

"हम फिदाए लखनऊ"

आज आपके लिए लाया हूँ हमारे एक ख़ास साथी हिमांशु की एक नज़्म ...... हिमांशु लखनऊ से ही हमारे साथ रहे हैं और हाल फिलहाल भोपाल में सहाफियत के गुर सीख रहे है....ये नज़्म उन्होंने लखनऊ को नजर की है !
गौर फ़रमाएँ

ऐ सरज़मीने लखनऊ
तुझसे दूर होकर
हम दिन गुजारते हैं
तन्हाइयों में रोकर

कैसे कहें हमारे लिए
तू क्या है लखनऊ
बसता है दिल जहाँ
वो जगह है लखनऊ

हम तुझसे आशना थे
वो वक्त और था
हम भी थे लखनवी
क्या खूब दौर था

शहरे वफ़ा तुझसे मेरी
पहचान है पुरानी
रौशन तेरे बाज़ार या
गलियाँ हों जाफरानी

मुसलमाँ जहाँ होली में
चेहरों को रंगे रहते
हिंदू भी मुहर्रम में
थे मर्सिया कहते

गुस्से में भी जुबां से
आप निकलता था
रस्ता बताने वाला
साथ में चलता था

जिसको न दे मौला
उस पर भी इनायत
मशहूर है अजदाद ने
छोड़ी नही गैरत

शेरो-सुखन से लोग
बातों की पहल करते
महफिल में बुला कर
क्या खूब चुहल करते

पतंगों से आसमान की
जागीर झटकते थे
वो ढील छोड़ देते
हम गद्दा पटकते थे

मकबूल बहुत है
कबाब जहाँ का
बेमिसाल आज भी
शबाब जहाँ का

हमको है याद आती
तेरी शाम अब भी
रौशन है ज़हनो दिल में
तेरा नाम अब भी

गर्दिशे हालात से
मजबूर हो गए
न चाहते हुए भी
तुझसे दूर हो गए

हैं इस तरह यहाँ हम
जैसे की हों कफस में
शामिल है ऐ वतन तू
अपनी हर नफस में

चाह कर भी तुझको
न भूल पाये लखनऊ
कहते यही मुक़र्रर
"हम फिदाए लखनऊ"

-हिम लखनवी

Friday, October 3, 2008

अदम गोंडवी ... के अंदाज़ में

ये दौर मुल्क के लिए मुश्किलों का दौर है.....भरोसा दोनों ओर का टूटा है और हालत रोज़ बा रोज़ बदसे बदतर होते जा रहे हैं ! ऐसे में अचानक आज शायर / कवि अदम गोंडवी की ये ग़ज़ल हाथ लगी तो सोचा ये सवा शेर आपकी नज़र कर दूँ ......तो पढ़ें और गुनें !

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये

अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है

दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले

ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ

मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़

दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये


Saturday, September 13, 2008

रेत से बुत न बना

अहमद नदीम क़ासमी : जन्म स्थान सरगोधा (अब पाकिस्तान में)

प्रमुख कृतियाँ : 'धड़कनें' (1962) जो बाद में 'रिमझिम' के नाम से प्रकाशित हुई और फिर इसी नाम से जानी गई । जलाल-ओ-जमाल, शोल-ए-गुल, दश्ते-वफ़ा, मुहीत (सभी कविता-संग्रह)

रेत से बुत न बना

रेत से बुत न बना मेरे अच्छे फ़नकार

एक लम्हे को ठहर मैं तुझे पत्थर ला दूँ

मैं तेरे सामने अम्बार लगा दूँ

लेकिन कौन से रंग का पत्थर तेरे काम आएगा

सुर्ख़ पत्थर जिसे दिल कहती है बेदिल दुनिया

या वो पत्थराई हुई आँख का नीला पत्थर

जिस में सदियों के तहय्युर के पड़े हों डोरे

क्या तुझे रूह के पत्थर की जरूरत होगी

जिस पे हक़ बात भी पत्थर की तरह गिरती है

इक वो पत्थर है जिसे कहते हैं तहज़ीब-ए-सफ़ेद

उस के मर-मर में सियाह ख़ून झलक जाता है

इक इन्साफ़ का पत्थर भी होता है मगर

हाथ में तेशा-ए-ज़र हो, तो वो हाथ आता है

जितने मयार हैं इस दौर के सब पत्थर हैं

शेर भी रक्स भी तस्वीर-ओ-गिना भी पत्थर

मेरे इलहाम तेरा ज़हन-ए-रसा भी पत्थर

इस ज़माने में हर फ़न का निशां पत्थर है

हाथ पत्थर हैं तेरे मेरी ज़ुबां पत्थर है

रेत से बुत न बना ऐ मेरे अच्छे फ़नकार