आज आपके लिए लाया हूँ हमारे एक ख़ास साथी हिमांशु की एक नज़्म ...... हिमांशु लखनऊ से ही हमारे साथ रहे हैं और हाल फिलहाल भोपाल में सहाफियत के गुर सीख रहे है....ये नज़्म उन्होंने लखनऊ को नजर की है !
गौर फ़रमाएँ
ऐ सरज़मीने लखनऊ
तुझसे दूर होकर
हम दिन गुजारते हैं
तन्हाइयों में रोकर
कैसे कहें हमारे लिए
तू क्या है लखनऊ
बसता है दिल जहाँ
वो जगह है लखनऊ
हम तुझसे आशना थे
वो वक्त और था
हम भी थे लखनवी
क्या खूब दौर था
शहरे वफ़ा तुझसे मेरी
पहचान है पुरानी
रौशन तेरे बाज़ार या
गलियाँ हों जाफरानी
मुसलमाँ जहाँ होली में
चेहरों को रंगे रहते
हिंदू भी मुहर्रम में
थे मर्सिया कहते
गुस्से में भी जुबां से
आप निकलता था
रस्ता बताने वाला
साथ में चलता था
जिसको न दे मौला
उस पर भी इनायत
मशहूर है अजदाद ने
छोड़ी नही गैरत
शेरो-सुखन से लोग
बातों की पहल करते
महफिल में बुला कर
क्या खूब चुहल करते
पतंगों से आसमान की
जागीर झटकते थे
वो ढील छोड़ देते
हम गद्दा पटकते थे
मकबूल बहुत है
कबाब जहाँ का
बेमिसाल आज भी
शबाब जहाँ का
हमको है याद आती
तेरी शाम अब भी
रौशन है ज़हनो दिल में
तेरा नाम अब भी
गर्दिशे हालात से
मजबूर हो गए
न चाहते हुए भी
तुझसे दूर हो गए
हैं इस तरह यहाँ हम
जैसे की हों कफस में
शामिल है ऐ वतन तू
अपनी हर नफस में
चाह कर भी तुझको
न भूल पाये लखनऊ
कहते यही मुक़र्रर
"हम फिदाए लखनऊ"
-हिम लखनवी
Thursday, October 9, 2008
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